भारत-इजरायल संबंध की शुरूआत :The beginning of India-Israel relations
भारत-इजरायल संबंध (India-Israel Relations) पुरातन काल से अच्छे रहे हैं पर राजनैतिक संबंध हाल ही के दिनों में सुधरीं हुए हैं, दोनों ही देश की भूमि से अभी के समय के प्रमुख धर्मो का उद्गम हुआ है | भारत और इजरायल को 9 महीने के अंतराल पर आजादी मिली थी। 15 अगस्त, 1947 को भारत एक स्वतंत्र देश बना तो 14 मई, 1948 को इसराइल. दोनों को ही आधुनिक राष्ट्र के रूप में जन्म लेते समय विभाजन का दंश झेलना पड़ा था। दशकों की गुटनिरपेक्ष और अरब नीति समर्थक के बाद भारत ने औपचारिक रूप से भारत के साथ संबंध स्थापित किए, लेकिन इससे पहले भारत और इजरायल के बीच कोई संबंध नहीं रहे हैं. इसके पीछे का कारण था- पहला भारत गुटनिरपेक्ष राष्ट्र था जो कि पूर्व सोवियत संघ का समर्थक था और दूसरे गुट निरपेक्षों के तरह भारत इजरायल को इसकी स्वतंत्रता नहीं देता था. दूसरा भारत फिलिस्तीन के स्वतंत्रता का समर्थक रहा।
यहां तक की 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र फिलिस्तीन नामक संस्था का निर्माण किया. मगर स्थितियां बदली और समय के साथ इजरायल को लेकर भारत को अपना नजरिया बदलना पड़ा. इसके पीछे भी कारण है 1989 में कश्मीर विवाद, 1991 में सोवियत संघ का विघटन और पाकिस्तान के गैर कानूनी घुसपैठ के चलते राजनीतिक परिवेश में बदलाव आया, और सोच बदलते हुए भारत ने इजरायल के साथ अपने रिश्तों (India-Israel Relations) को मजबूत करना शुरू किया. जिसकी शुरूआत 1992 से हुई, लेकिन भारत खुलकर इजरायल को गले लगाने से परहेज करता रहा. क्यों कि भारत के अरब देशों के साथ अच्छे संबंध थे. इसलिए भारत हमेशा इजरायल के साथ खुलकर आगे बढ़ने में संकोच करता था. अरब देशों में अधिक संख्या में भारतीय मुस्लमान काम करते हैं.
इसके बावजूद बीजेपी की सरकार सत्ता में आते ही इजरायल और भारत के मध्य सहयोग बढ़ा, दोनों राजनीतिक दल एक-दूसरे के प्रति इस्लामी कट्टरपन्थ के लिए एक जैसी मानसिकता के साथ मध्य पूर्व में यहूदी समर्थक नीति की वजह से भारत और इजरायल के संबंध और मजबूत होते चले गए.
जानिए किस तरह भारतीय सैनिकों ने हाइफा को कराया आजाद ?
माना जाता है कि इजरायल की आजादी का रास्ता हाइफा की लड़ाई से खुला था. हर साल 23 सितंबर को हाइफा दिवस मनाया जाता है. भारतीय सेना भी इसे हाइफा दिवस के रूप में मनाती है. हाइफा इजरायल का एक प्रमुख शहर है. तुर्कों के कब्जे से आजाद करने में भारतीय सैनिकों की अहम भूमिका है. लगभग 2000 सालों से अपने जन्भूमि से बेदखल, दुर्व्यवहार और अमानवीय यातनाओं के शिकार यहूदियों के लिए 23 सिंतबर 1918 तुर्की साम्राज्य से हाइफा शहर की मुक्ति का महत्व बहुत अधिक था. जब यूरोप सहित दुनिया के अन्य हिस्सों में रह रहे यहूदियों ने हाइफा की मुक्ति की खबर सुनी तो वे झूम उठे. यहूदी इजरायल को फिर से प्राप्त करने का दिनभर स्मरण करते थे. इजरायलय से निष्कासन के बाद इधर-उधर बसे यहूदी हाइफा 1919 में हाइफा पहुंचना शुरू कर दिया.
समय हैं वर्ष 1918 जब प्रथम विश्व युद्ध लड़ा जा रहा था. इस युद्ध को भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा और अपनी तरह का आखिरी युद्ध है. किस तरह से भारतीय सैनिकों ने सिर्फ भाले, तलवारों और घोड़ों के सहारे ही जर्मनी-तुर्की की मशीनगन से लैस सेना को धूल चटा दी थी। इजरायल के हाइफा शहर में तुर्की साम्राज्य का कब्जा था. जिसे आजाद कराने के लिए ब्रिटिश सैनिकों की मदद के लिए भारतीय सैनिकों को भेजा गया था. उसमें जोधपुर, हैदराबाद और मैसूर की सेना थी. हैदराबाद के निजाम के द्वारा भेजे गए सैनिकों को युद्ध बंदियों के प्रबंधन और देखरेख का काम सौंपा गया. क्यों कि इसमें सभी मुस्लमान थे. वहीं मैसूर और जोधपुर के घुड़सवार सैन्य टुकड़ियों को मिलाकर एक यूनिट ( Unit) तैयार की गई. तुर्की, ऑस्ट्रिया और जर्मनी की संयुक्त साधन सम्पन्न शक्तिशाली सेना के विरुद्ध भारतीय सैन्य दल का नेतृत्व जोधपुर के मेजर दलपत सिंह शेखावत ने किया था, जो इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए. दलपत सिंह शेखावत को हाइफा का नायक भी कहा जाता है. एक ओर तुर्की, आस्ट्रिया और जर्मनी के सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों का मुकाबला था. उनके पास तोप, बम और बंदूक सहित अत्याधुनिक हथियार थे। दूसरी तरफ भारतीय सैनिक थे, हथियार के नाम पर उनके पास सिर्फ भाल और तलवार थे, इन्ही से उन्हें दुश्मन सैनिकों का सामना करना था. उन्होंने पैदल और घोड़ो पर सवार होकर युद्ध न केवल लड़ा, जबकि अकल्पनीय जीत भी हासिल की.
हाइफा पहुंचने के बाद जब ब्रिटिश सेना को दुश्मन के ताकत और मोर्चाबंदी का पता चला फिर ब्रिगेडियर जनरल एडीए किंग ने सेना को वापस बुला लिया था। जब इन बातों की जानकारी भारतीय सैनिकों को लगी तो उन्हें ये ठीक नहीं लगा। तब भारतीय सैनिकों ने ब्रिगेडियर जनरल के आदेश का विरोध किया। भारतीय सैनिकों ने कहा कि हम यहां युद्ध लड़ने आए हैं, हम बिना युद्ध लड़े किस मुंह से अपने देश लौटेगे. हमें वीरगति को प्राप्त करना पसंद हैं, मगर युद्ध के मैदान में पीठ करके भागना उचित नहीं समझा जाता है. आखिरकार ब्रिगेडियर जनरल को भारतीय सैनिकों की जिद्द के सामने झुकना पड़ा, और उन्होंने हाइफा पर हमले की इजाजत दे दी.
23 सितंबर को सुबह 5 बजे भारतीय सैनिक हाइफा की ओर बढ़ना शुरू कर दिए. वह तलवार और भाल से सुज्जति थे. भारतीय सेना का मार्ग माउंट कार्मल पर्वत श्रृंखला के साथ लगता हुआ था और किशोन नदी एवं उसकी सहायक नदियों के साथ दलदली भूमि की एक पट्टी तक सीमित था। जैसे ही सेना 10 बजे हाइफा पहुँची, वह माउंट कार्मल पर तैनात 77 एमएम बंदूकों के निशाने पर आ गए। परंतु, भारतीय सेना का नेतृत्व कर रहे जवानों ने यहाँ बहुत सूझबूझ दिखाई। मैसूर लांसर्स की एक स्क्वाड्रन शेरवुड रेंजर्स के एक स्क्वाड्रन के समर्थन से दक्षिण की ओर से माउंट कार्मल पर चढ़ी। उन्होंने दुश्मनों पर अचानक आश्चर्यचकित कर देने वाला हमला कर कार्मल की ढलान पर दो नौसैनिक तोपों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने दुश्मनों की मशीनगनों के खिलाफ भी वीरता के साथ आक्रमण किया। उधर, 14:00 बजे ‘बी’ बैटरी एचएसी के समर्थन से जोधपुर लांसर्स ने हाइफा पर हमला किया। मजबूत प्रतिरोध के बावजूद भी लांसर्स ने बहादुरी के साथ दुश्मनों की मशीनगनों पर सामने से आक्रमण किया। 15:00 बजे तक भारतीय घुड़सवारों ने उनके स्थानों पर कब्जा कर तुर्की सेना को पराजित कर हाइफा पर अधिकार कर लिया। (रवि कुमार की पुस्तक ‘ईजऱायल में भारतीय वीरों की शौर्यगाथा ‘ पुस्तक में वर्णन) हाइफा शहर की मुक्ति के बाद भी भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिकों के साथ मिलकर पूरे इजरायल को मुक्त करावाने के लिए कुछ और लड़ाइयाँ भी लड़ीं। इजरायल की आजादी के लिए लड़े गए विभिन्न युद्धों में लगभग 900 साहसी भारतीय सैनिकों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया है।
तीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने अपने लिए अलग देश इजरायल की माँग जोर-शोर से उठाना प्रारंभ की दिया। अंतत: यहूदियों के प्रयास रंग लाए और 30 साल बाद वह दिन आ गया, जब उन्हें 1948 में अपना देश इजरायल प्राप्त हुआ।
भारत ने पहले विरोध किया फिर मान्यता दी
ब्रिटेन की ओर से जारी घोषणा पत्र में कहा गया किफिलिस्तीन में यहूदियों का नया देश बनेगा. पहले इस घोषणा पत्र का अमेरीका ने समर्थन किया. 1945 में अमरीकी राष्ट्रपति ने आश्वासन देते हुए कहा कि यहूदियों और अरबी लोगों के परामर्श के बिना अमेरीका किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगा. आखिरकार भारत ने भी 17 सितंबर 1950 को आधिकारिक तौर पर इजरायल राज्य की मान्यता दे दी. हालांकि, नेहरू सरकार इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे क्योंकि यह फिलिस्तीनी कारणों का समर्थन करती थी. इसलिए 1948 में संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के गठन के ख़िलाफ़ वोट किया था. इसके साथ ही भारत ने इजरायल का काउंसल को मुंबई में एक स्थानीय यहूदी कॉलोनी में 1951 में नियुक्त किया था।
अल्बर्ट आइंस्टीन ने नेहरू को लिखा था पत्र
अल्बर्ट आइंस्टीन इजरायल के गठन को लेकर काफी इच्छुक थे. आइंस्टीन खुद एक यहूदी थे. उन्होंने यूरोप में यहूदियों के साथ हुए नरसंहार को अपने आखों के सामने देखा था. या कहा जाए कि अल्बर्ट आइंस्टीन यहूदी नरसंहार के गवाह थे. 13 जून 1947 को यहूदी राज्य के स्थापना का समर्थन करने के मनाने के लिए अल्बर्ट आइंस्टीन ने जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा. उन्होंने नेहरू को लिखे खत में कहा था, ”सदियों से यहूदी दरबदर स्थिति में रहे हैं और इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है. लाखों यहूदियों को तबाह कर दिया गया है. दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहां वो ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सकें. एक सामाजिक और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के नेता के रूप में मैं आपसे अपील करता हूं कि यहूदियों का आंदोलन भी इसी तरह का है और आपको इसके साथ खड़ा रहना चाहिए.”
नेहरू ने आइंस्टाइन को जवाब में लिखा था, ”मेरे मन में यहूदियों को लेकर व्यापक सहानुभूति है. मेरे मन में अरबियों को लेकर भी सहानुभूति कम नहीं है. मैं जानता हूं कि यहूदियों ने फ़लस्तीन में शानादार काम किया है. लोगों के जीवनस्तर को बेहतर बनाने में बड़ा योगदान दिया है, लेकिन एक सवाल मुझे हमेशा परेशान करता है. इतना होने के बावजूद अरब में यहूदियों के प्रति भरोसा क्यों नहीं बन पाया?”
कहीं ना कहीं यहूदियों पर हो रहे अत्याचार को भारत बखूबी समझता था. लेकिन नेहरू यहुदियों के खिलाफ़ नहीं थे, बल्कि फिलस्तीन के बंटवारे के खिलाफ थे. आखिर हो भी क्यों ना जिस समय इजरायल एक राष्ट्र के रूप में बन रहा था, उस समय भारत विभाजन का दंश झेल रहा था. जिसे नेहरू साक्षात अपने आंखों से देख रहे थे. ऐसे में फिलस्तीन के बंटवारे के पक्षधर कैसे रहते.
1992 के बाद भारत और इजरायल संबंध | India-Israel Relations
1992 में पी वी नरसिम्हा राव भारत के प्रधानमंत्री थे उस वक्त भारत ने इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए। हालांकि, इस फैसले के पीछे बहुत से वैश्विक कारण भी थे। सोवियत रूस के विघटन और इजरायल और फलस्तीन के बीच शांति प्रक्रिया के शुरू होना दो प्रमुख कारण थे। इजरायल के साथ भारत के बदलते संबंधों की एक वजह जॉर्डन, सीरिया और लेबनान जैसे अरब मुल्कों ने भी भारत को अपनी रूस और अरब की ओर झुकी विदेश नीति पर सोचने के लिए मजबूर किया। पीएलओ (फलस्तीन की आजादी के लिए संघर्ष करनेवाली संस्था) के प्रमुख यासिर अराफात के व्यक्तिगत तौर पर इंदिरा गांधी से अच्छे संबंध थे और कहा जाता है कि मुस्लिम वोटों के लिए वह इंदिरा के साथ रैली करने को भी तत्पर रहते थे।
फिलिस्तीन के मुद्दे पर भारत का रुख जस-का-तस |India-Israel Relations
भारत और इज़राइल के प्रगाढ़ होते संबंधों (India-Israel Relations) को लेकर आशंका था कि भारत-फिलिस्तीन संबंध प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसके रुख में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।
हाल ही में जब अमेरिका ने यरूशलम को इज़राइल की राजधानी स्वीकार करने का विवादास्पद प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में रखा तो भारत सहित 128 देशों ने प्रस्ताव का विरोध किया, जबकि केवल 9 देशों ने ही इसके पक्ष में वोट दिया और 35 देश अनुपस्थित रहे। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि यरुशलम के दर्जे को लेकर बातचीत होनी चाहिये और बदलाव पर अफसोस जताते हुए अमेरिका के फैसले को अमान्य घोषित किया गया। कई दशकों से भारत और फिलिस्तीन संबंध मजबूत रहे हैं और संभवतः यही कारण रहा कि संयुक्त राष्ट्र में भारत ने इज़राइल के खिलाफ वोट दिया।