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भारत-म्यांमार का इतिहास ,संबंध और सामरिक महत्त्व: India Myanmar (Burma) relation, fresh new prospective 2021

Deeksha Mishra
Last updated: 2023/02/06 at 12:48 PM
Deeksha Mishra
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भारत-म्यांमार संबंध
भारत-म्यांमार संबंध
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भारत-म्यांमार का संबंध प्राचीन काल से ही बहुत अच्छा रहा है यहाँ तक की अंग्रेजो के भारत से जाने के बाद ही म्यांमार को अखंड भारत का ही हिस्सा था | हाल ही के महीनों में म्यांमार की सेना देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची समेत कई नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया, और सेना ने सत्ता हासिल कर लिया. 1948 में ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से यह म्यांमार में तीसरा तख्तापलट है। म्यामांर में एक साल के लिए आपातकाल लागू कर दिया गया. म्यांमार के दो प्रमुख शहर यगून और राजधानी नेपीटाव में सड़कों पर सैनिक मौजूद थे. बता दें कि नवंबर में चुनाव के नतीजों के बाद से तनाव बरकरार था. चुनाव में सू ची की पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने भारी अंतर से जीत हासिल की थी लेकिन सेना का दावा है कि चुनाव में धोखाधड़ी हुई.

Contents
म्यांमार का इतिहासम्यांमार या बर्मा..आखिर अमेरीका को क्यों चिढ़ है इस नाम से? भारत-म्यांमार के बीच धार्मिक संबंधतख्तापलट की तात्कालिक वजहभारतीय सेना ने म्यांमार में किया था सर्जिकल स्ट्राइक? संयुक्त राष्ट्र में लाया गया था म्यांमार के खिलाफ प्रस्ताव, भारत रहा था अनुपस्थित भारत ने म्यांमार का समर्थन क्यों किया ? कौन हैं आंग सान सू ची ( Aan San Suki ) ?कौन हैं अशीन विराथु?म्यांमार में भारत के सामरिक हितकोको द्वीप समूह का इतिहास
म्यांमार का इतिहास
Map pf Myanmar copyright Britannica. (भारत-म्यांमार)

म्यांमार जिसे पहले बर्मा के नाम से जानते थे. दक्षिण पूर्व एशिया में अव्यवस्थित देश हैं. जो चीन, थाईलैंड, भारत, लाओस और बांग्लादेश के साथ अपनी सीमा साझा करता है. म्यांमार का इतिहास काफी पुराना व कठिन हैं, यहां का मुख्य धर्म बौद्ध धर्म है. इसके अलावा यहां कई जातियां निवास करती है, जिनमें से एक हैं रोहिंग्या मुस्लमान19 वीं सदीं में बर्मन लोग चीन-तिब्बत सीमा से विस्थापित हुए, और फिर इरावती नदी घाटी में आ बसे। सन 1044 में मध्य बर्मा के ‘मियन वंश’ के अनावराहता के शासनकाल से म्यामांर का इतिहास शुरू होता है. इसका उल्लेख ‘मार्कोपोलो’ के यात्रा संस्मरण में भी मिलेगा. सन 1287 में कुबला खान के आक्रमण से मियन वंश का विनाश हो गया. 500 वर्षों तक राज्य छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गया. सन्‌ 1754 ई. में अलोंगपाया (अलोंपरा) ने शान एवं मॉन साम्राज्यों को जीतकर ‘बर्मी वंश’ की स्थापना की जो 19वीं शताब्दी तक रहा।

म्यांमार या बर्मा..आखिर अमेरीका को क्यों चिढ़ है इस नाम से?

दुनिया के उलट अमेरिका ने इस पर अपना रुख नहीं बदला. सेना द्वारा दिए गए नए नाम को अमेरिका ने स्वीकार नहीं किया है. वॉशिंगटन आज भी बर्मा ही कहकर संबोधित करता है. हालांकि 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने दौरे पर बर्मा और म्यांमार दोनों ही शब्दों का उपयोग किया. म्यांमार राष्ट्रपति के सलाहकार ने इसे एक सकारात्मक शुरुआत के तौर पर देखा.बर्मा

अमेरिका आज भी बर्मा ही कहकर पुकारता है. नए राष्ट्रपति जो बाइडेन भी खासतौर से इस देश के आधिकारिक नाम से बच रहे हैं. व्हाइट हाउस की ओर से जारी बयान में बर्मा नाम को ही संबोधित किया जा रहा है. हालांकि अन्य देशों के लिए अब यह देश म्यांमार ही है.

भारत-म्यांमार के बीच धार्मिक संबंध
भारत-म्यांमार
Buddhist of Myanmar (भारत-म्यांमार)

भारत-म्यांमार के बीच धार्मिक संबंध भी बहुत अच्छे रहे हैं | विभिन्न धर्मों और प्रजातियों के इस देश में बौद्ध-धर्म की थेरवादी शाखा के लोग सबसे ज्यादा हैं और वे अपने को म्यांमार का असली नागरिक मानते हैं। बौद्ध धर्म की थेरवादी शाखा मानती है कि निर्वाण(मोक्ष) अकेले प्राप्त किया जा सकता है, बुद्ध कोई देवता नहीं और ना ही बोधिसत्वों की कोई देवमाला है जिसकी निर्वाण-प्राप्ति में जरुरत हो। अपनी मुक्ति का जिम्मेदार स्वयं अपने आपको मानने के कारण बौद्ध-धर्म की थेरवादी शाखा के अनुयायियों के लिए महायानियों की तरह सबकी पीड़ा और सबके सुख के लिए स्वयं के कर्म को जिम्मेदार मानने की जरुरत नहीं रह जाती। इस रुप में थेरवादी बौद्ध-धर्म अपने को हर किसी से अलगाये रखने का धर्म बनकर सामने आता है।

भारत-म्यांमार
Buddhist temple in Myanmar (भारत-म्यांमार संबंध)

म्यांमार में जारी शासन पर इस मान्यता की छाप साफ देखी जा सकती है।थेरवादी बौद्ध-धर्म को तरजीह देने वाली म्यांमार सरकार ने अपने शुद्धतावादी संस्कार के अनुरुप नागरिकों की तीन श्रेणी बना रखी है। जैसे थेरवादी बौद्ध-धर्म मानता है कि सबसे प्राचीन सिद्धांत ही सबसे असली और इस कारण विश्वसनीय धर्म-सिद्धांत हैं वैसे ही म्यांमार में लागू नागरिकता के नियमों से यह विश्वास झलकता है कि सबसे पुराना निवासी ही म्यांमार का सबसे असली नागरिक और इस कारण विश्वसनीय है।

तख्तापलट की तात्कालिक वजह

बीते साल के नवंबर महीने में म्यांमार में चुनाव हुए। इसमें आंग सान सू की पार्टी, सत्ताधारी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने 2015 के चुनावों से कहीं ज्यादा सीट और वोट हासिल किये। लेकिन, सेना को चुनाव के नतीजे मंजूर ना हुए। सेना के समर्थन वाली युनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी को बहुत कम सीटें(कुल 33) हाथ आयीं। सेना का आरोप था कि चुनाव में फर्जीवाड़ा हुआ है, मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के कारण एक-एक वोटर को कई-कई दफे वोट डालने का मौका मिला है। सेना के इस आरोप को म्यांमार के चुनाव आयोग ने 29 जनवरी नकार दिया। चुनाव आयोग के इस नकार के बाद सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली, आंग सान सू की को नजरबंदी में डाल दिया।

Una mujer hizo su clase de aerobic sin darse cuenta de que estaban dando el golpe de Estado en Myanmar. Y pues puede verse como el convoy de militares llega al parlamento. pic.twitter.com/fmFUzhawRe

— Àngel Marrades (@VonKoutli) February 1, 2021
Famous dance by fitness teacher while Myanmar army taking power forcefully

म्यामार की सेना के प्रधान मिन आंग ह्लैंग का कहना है कि हमने तख्तापलट नहीं किया है। दरअसल, इस देश में तो संविधान का शासन है और संविधान के नियमों का पालन नहीं हो तो फिर संविधान की रक्षा जरुरी हो जाती है। समाचारों में उनका बयान आया है कि `सभी कानूनों का जन्मदाता संविधान है। इसलिए, हमें संविधान का पालन करना होता है। अगर कानून का पालन नहीं हो रहा तो ऐसे कानून को रद्द कर दिया जाता है। और, अगर संविधान का पालन नहीं हो रहा तो ऐसे संविधान को रद्द करना जरुरी हो जाता है।`

भारत-म्यांमार
iconic sign gesture to protest in Myanmar Civil disobedient movement taken from ‘Hunger games’ Series. copyright Wall Street journal. (भारत-म्यांमार संबंध)
भारतीय सेना ने म्यांमार में किया था सर्जिकल स्ट्राइक?

म्यांमार में भारतीय सैन्य अभियान 10 जून 2015 को भारत ने भारत-म्यांमार की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर आतंकवादी शिविरों के खिलाफ शल्य-क्रियात्मक हमलों का आयोजन किया। 4 जून 2015 को एनएससीएन-खापलांग ने मणिपुर के चंदेल जिले में 6 डोगरा रेजिमेंट के एक भारतीय सेना के काफिले पर हमला किया और 18 सेना के जवानों को मार दिया। भारतीय मीडिया ने बताया कि इस सफल सीमा पार ऑपरेशन में हताहत आतंकियों की संख्या 158 तक है

भारत-म्यांमार
photo of Indian army taken after surgical strike in Myanmar. (भारत-म्यांमार संबंध)

सटीक खुफिया सूचनाओं के आधार पर, भारतीय वायु सेना और 21 पैरा (एसएफ) ने भारत-म्यांमार की सीमा पर एक सीमापार की कार्रवाई की और भारत-म्यांमार सीमा के साथ एनएससीएन (के) और केवाईकेएल में से प्रत्येक में दो आतंकवादी कैंप को नष्ट कर दिया। यह अभियान दो स्थानों पर नागालैंड और मणिपुर सीमा पर म्यांमार क्षेत्र के अंदर किया गया था। एक जगह मणिपुर में उखरुल के निकट है। सेना ने नागा उग्रवादियों के दो पारगमन शिविरों पर हमला किया। 70 कमांडो कथित तौर पर इस ऑपरेशन में शामिल थे।

संयुक्त राष्ट्र में लाया गया था म्यांमार के खिलाफ प्रस्ताव, भारत रहा था अनुपस्थित

संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया था, 119 देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. सिर्फ बेलारूस ने इसके ख़िलाफ़ वोट किया. भारत, रूस और चीन समेत 36 देश इस प्रस्ताव पर मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे. रूस और चीन म्यांमार की सेना के सबसे बड़े हथियार सप्लायर हैं. अनुपस्थित रहे कुछ देशों का कहना था कि ये म्यांमार का आंतरिक मुद्दा है जबकि अन्य का कहना था कि चार साल पहले जब म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमान लोगों को निकाला गया तब इस तरह का प्रस्ताव नहीं लाया गया. म्यांमार ने क़रीब दस लाख रोहिंग्या मुसलमानों को देश से निकलने के लिए मजबूर कर दिया था.

संयुक्त राष्ट्र में यूरोपीय संघ के दूत ओलोफ स्कूग ने कहा, “ये प्रस्ताव सैन्य शासकों को अवैध क़रार देता है, लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा की आलोचना करता है और दुनिया में म्यांमार को अलग-थलग करता है.”

वहीं संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार की लोकतांत्रिक सरकार के प्रतिनिधि क्या मोए तुन ने इस प्रस्ताव पर निराशा ज़ाहिर करते हुए कहा कि महासभा को ये प्रस्ताव पारित करने में बहुत समय लग गया. उन्होंने कहा कि ये एक हल्का प्रस्ताव है.

भारत ने म्यांमार का समर्थन क्यों किया ?

बीबीसी की खबर के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस तिरुमूर्ति ने इस मौक़े पर कहा कि इस प्रस्ताव को पेश करके यह नहीं मान लेना चाहिए कि ‘म्यांमार में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत करने की दिशा में हमारे संयुक्त प्रयास अनुकूल नहीं हैं.’ साथ ही तिरुमूर्ति ने कहा कि ‘म्यांमार की स्थिति को लेकर भारत का स्टैंड साफ़ और एक है. म्यांमार में बदलते हालात को लेकर हम अपनी गहरी चिंताएं जता चुके हैं. हम हिंसा के इस्तेमाल की निंदा करते हैं और अधिक संयम का आग्रह करते हैं.’

फ़रवरी में हिरासत में लिए जाने के बाद से 75 वर्षीय आंग सान सू ची को बस एक बार अदालत में देखा गया है. वो अभी किस हाल में हैं ये इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. म्यांमार की सेना ने चुनावों में फ़र्ज़ीवाड़े के आरोप लगाते हुए फ़रवरी में सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था. सेना ने अपने इस क़दम का बचाव किया है.

हालांकि चुनावों पर नज़र रखने वाले स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का कहना था कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष थे. सू ची पर लगाए गए आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताया गया है.

म्यांमार में लोकतंत्र और आन सान सू की ( Aan San Suki )

भारत-म्यांमार
photo of protest to free aung san su kyi. (भारत-म्यांमार संबंध)

भारत की आजादी के एक साल बाद म्यांमार भी औपनिवेशिक शासन से आजाद हो गया था। तब के वक्त में बर्मा कहलाने वाले म्यांमार ने लोकतंत्र की राह अपनायी लेकिन 1962 में तख्तापलट हुआ, हुकूमत फौजी जेनरलों के हाथ आ गई। इसके तीस साल बाद 1990 में म्यांमार में पहली बार चुनाव हुए। आंग सान सूकी की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने चुनाव जीता जरुर लेकिन फौजी जेनरलों ने चुनाव के नतीजों को नकार दिया। सत्ता की बागडोर उनके हाथ में बनी रही और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाली नेता आंग सान सू ( Aan San Suki ) को नजरबंद कर लिया गया।

सू की ( Aan San Suki ) ने 1989 से 2010 के बीच लगभग 15 साल नजरबंद रहते हुए गुजारे और नजरबंदी में ही लोकतंत्र की लड़ाई को आगे बढ़ाया। सन् 1990 का दशक सू की के लिए विश्व-प्रसिद्धि का दौर रहा। उन्हें लोकतंत्र और मनुष्य की आजादी के हक में अहिंसक प्रतिरोध के साथ डटे नेता के रुप में पहचाना गया और इस क्रम में उनकी तुलना कभी महात्मा गांधी से की गई तो कभी नेल्सन मंडेला से।

साल 1991 में सू की ( Aan San Suki ) को नजरबंदी के दौरान ही नोबेल पुरस्कार मिला था। ढाई दशक के बाद साल 2015 में म्यांमार में एक हद तक मुक्त और निष्पक्ष चुनाव हुए और सत्ता आंग सान सू ( Aan San Suki ) के हाथ में आयी। (म्यांमार में साल 2010 में भी चुनाव हुए थे और औपचारिक तौर पर सैन्य शासन का अंत हुआ था लेकिन तब जो सरकार बनी थी उसे नाममात्र की नागरिक सरकार कहना ठीक होगा। दरअसल तब सेना के शह वाली युनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट ने ज्यादातर सीटें जीतीं और आरोप लगे कि सेना ने चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली करवायी है। विचित्र है कि एक दशक बाद यही आरोप खुद सेना लगा रही है)

अहिंसक प्रतिरोध की प्रतिमूर्ति बन चली आंग सान सू की तरफ दुनिया बड़ी उम्मीद से देख रही थी कि वे म्यांमार में लोकतांत्रिक सुधारों का नया विहान लेकर आयेंगी लेकिन हुआ इसका उलटा। साल 2017 में म्यांमार में सेना ने रोहिंग्या मुसलमानों पर अत्याचारों का सिलसिला शुरु किया। नीयत ये थी कि रोहिंग्या मुसलमानों की बहुलता वाले पश्चिमी म्यांमार के इलाके खाली हों तो उनकी रिहाइश की जगहों पर कब्जा करके व्यावसायिक इस्तेमाल किया जाये।

रोहिंग्या मुसलमानों पर सेना के इस अत्याचार की विश्व भर में निन्दा हुई। संयुक्त राष्ट्र संघ की जांच एजेंसी ने कहा कि 7 लाख 40 हजार रोहिंग्या अल्पसंख्यक अपना देश छोड़कर पड़ोसी देशों में जाने को मजबूर हुए हैं और रोहिंग्या अल्पसंख्यकों का म्यांमार में नरसंहार किया जा रहा है लेकिन म्यांमार की स्टेट काउंसलर के रुप में आंग सान सू की ( Aan San Suki ) पर इस निन्दा का कोई असर ना हुआ। उन्होंने रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार को सिरे से नकारा, हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि हमारे देश की सेना दरअसल सशस्त्र विद्रोह से निबट रही है लेकिन आरोप नरसंहार का लगाया गया है।

कौन हैं आंग सान सू ची ( Aan San Suki ) ?

आंग सान सू ची म्यांमार की आज़ादी के नायक रहे जनरल आंग सान की बेटी हैं. 1948 में ब्रिटिश राज से आज़ादी से पहले ही जनरल आंग सान की हत्या कर दी गई थी. सू ची उस वक़्त सिर्फ दो साल की थीं. सू ची को दुनिया भर में मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला के रूप में देखा गया जिन्होंने भारत-म्यांमार के सैन्य शासकों को चुनौती देने के लिए अपनी आज़ादी त्याग दी. साल 1991 में नजरबंदी के दौरान ही सू ची को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया. 1989 से 2010 तक सू ची ने लगभग 15 साल नज़रबंदी में गुजारे. साल 2015 के नवंबर महीने में सू ची के नेतृत्व में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने एकतरफा चुनाव जीत लिया. ये म्यांमार के इतिहास में 25 सालों में हुआ पहला चुनाव था जिसमें लोगों ने खुलकर हिस्सा लिया. म्यांमार का संविधान उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकता है क्योंकि उनके बच्चे विदेशी नागरिक हैं. लेकिन 75 वर्षीय सू ची को म्यांमार की सर्वोच्च नेता के रूप में देखा जाता है. लेकिन म्यांमार की स्टेट काउंसलर बनने के बाद से आंग सान सू ची ने म्यांमार के अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में जो रवैया अपनाया उसकी काफ़ी आलोचना हुई. साल 2017 में रखाइन प्रांत में पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिए लाखों रोहिंग्या मुसलमानों ने पड़ोसी देश बांग्लादेश में शरण ली थी.

कौन हैं अशीन विराथु?

दस साल पहले मांडले के इस बौद्ध भिक्षु के बारे में बहुत कम लोगों ने सुना था. 1968 में जन्मे अशीन विराथु ने 14 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया और भिक्षु का जीवन अपना लिया.

विराथु को लोगों ने तभी जाना जब वे 2001 में राष्ट्रवादी और मुस्लिम विरोधी गुट ‘969’ के साथ जुड़े. म्यांमार में इस संगठन को कट्टरपंथी माना जाता है, लेकिन इसके समर्थक इन आरोपों से इनकार करते हैं.

भारत-म्यांमार
photo of Ashin Wirathu delivering a speech. (भारत-म्यांमार संबंध)

साल 2003 में उन्हें 25 साल जेल की सजा सुनाई गई, लेकिन साल 2010 में उन्हें अन्य राजनीतिक बंदियों के साथ रिहा कर दिया गया. और सरकार ने जैसे ही नियमों में राहत दी, वे सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय हो गए. उन्होंने अपने संदेश का प्रचार यूट्यूब और फ़ेसबुक पर किया. फ़ेसबुक पर फिलहाल उनके 37 हज़ार से ज़्यादा फ़ॉलोअर हैं.

म्यांमार में भारत के सामरिक हित

भारत-म्यांमार के सैन्य-राजनयिक संबंध भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।  वर्ष 2020 में म्याँमार में सेनाध्यक्ष और विदेश सचिव के हालिया दौरे की पूर्व संध्या पर म्याँमार ने सीमा पार से आने वाले 22 भारतीय विद्रोहियों को वापस भारत को सौंपा था, साथ ही भारत की और से म्याँमार को सैन्य हार्डवेयर, जिसमें 105 mm लाइट आर्टिलरी गन, नौसेनिक गनबोट और हल्के टॉरपीडो आदि की बिक्री बढ़ाने का भी निर्णय लिया गया था।

दोनों देशों के बीच सहयोग का हालिया उदाहरण देखें तो म्यांमार द्वारा अपने टीकाकरण अभियान में भारत से भेजे गए कोरोना वायरस के टीके की 1.5 मिलियन खुराक का प्रयोग किया जा रहा है, जबकि वहाँ चीन की 3,00,000 खुराक पर फिलहाल के लिये रोक लगा दी गई है।

कोको द्वीप समूह का इतिहास
भारत-म्यांमार
Map coco island location. (भारत-म्यांमार संबंध)

छोटे-छोटे द्वीपों को मिलाकर बना एक द्वीप बंगाल की खाड़ी में स्थित है, जिसे कोको द्वीप के नाम से जाना जाता है। एशिया महाद्वीपों में सबसे महत्वपूर्ण द्वीपों की श्रेणी में गिना जाने वाला कोको द्वीप समूह कोलकाता से 1255 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में है, जो भारतीय हितों की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। लेकिन साल 1950 में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय क्षेत्राधिकारों को लेकर जो तटीय उदासीनता दिखाई और सुरक्षा के मद्देनजर भी कोको द्वीप समूह को महत्व न देते हुए जो फैसला किया वो चीन की विस्तारक नीति को खासा मजबूती देता है। कोको द्वीप समूह को नेहरू ने साल 1950 में (बर्मा) म्यांमार को तोहफे में सौंप दिया और अब चीन कोको द्वीप से भारत की निगरानी करता है। दिन-ब-दिन चीन की गतिविधियों से भारत की सीमाई सुरक्षा को एक खतरा हमेशा बना रहता है। क्योंकि नेहरू उस क्षेत्र को बंजर जमीन के सिवा कुछ भी नहीं मानते थे। परिणामस्वरूप म्यामांर से चीन ने इस कोको द्वीप को ले लिया और चीन की चाल सफल हो गई।

पिछले पांच दशकों से चीन की दिलचस्पी इस कोको द्वीप पर लगातार बढ़ती जा रही है, अंडमान व निकोबार द्वीप से उत्तर में मौजूद कोको द्वीप भारत की सुरक्षा और रणनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत मायने रखता है।

भारतीय मिसाइलों के प्रक्षेपणों के प्रयासों पर चीन की गहरी निगाह हर समय रहती है जब भी हिंद महासागर या बंगाल की खाड़ी में भारत अपने किसी भी तरह की गतिविधियों को अंजाम देता है, इस पर चीन की नजर होती है। देखा जाये तो किसी भी राष्ट्र के लिये उसकी सुरक्षा गतिविधि में किसी दूसरे देश की तीखी नजर नुकसानदायक हो सकती है और प्रगतिशील राष्ट्र के लिए ये एक चिंता का विषय होना भी आवश्यक है।

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